Friday, January 4, 2019

धर्म संकट

कई भागों में बँटे हुए
और टूटते हुए ईश्वर
से गिरी धूल और मिटटी में
सने मेरे ये शब्द मूक हो गए हैं
इन मंदिरों, मस्जिदों और ईसा-घरों के
आलीशान गुम्बदों से गिर-गिर के 

मेरी आवाज़ चूर हो गई  है
इस झूठी सच्चाई की दलदल में फसी
ये ज़मीन की कोख में खो  हैं


रौंदी हुई सिमटी हुई
मेरी ये ज़मीन आज  चुप है
मुझे पनाह देती है
मूक है 
कुछ नहीं कहती

लेकिन कब तक?

-मीना

Friday, April 6, 2018

कौन थी वह

कौन थी वह
जो एक बिन्दु-सी
सो रही थी पल-पल --  

मीठी-सी नींद को
आँखों में भरकर
कोख की आँच में
माँ की सर रखकर।


चाहती थी वह
इस नये संसार में
खुलकर भ्रमण करना
एक नये वजूद को
पहन कर तन पर
ज़िन्दगी की चोखट पर
पहला कदम रखना
और फिर
इन जुड़ते और टूटते पलों
से बनी रिश्तों की सीढ़ी पर
लम्हा-लम्हा चढ़ना।

क्या था यही
जन्म को अपने
सार्थक करना?


कौन थी वह
जो एक बिन्दु-सी
सो रही थी पल-पल  ......

Friday, December 25, 2015

REMEMBRING "SADHANA" :: Mila Hai Kisi Ka Jhumka (गीत व्याख्या) - Parakh





गीत की व्याख्या :

शायद संगीत और गीत जहाँ एक हो जाते हैं वहां सबसे उच्च श्रेणी की कविता या कला का जन्म होता है।  परख का गीत "मिला है किसी का झुमका" भोर के आँचल की महक से भीग कर हमारे मन की गहराइयों की झील में डूब जाता है।  सुरों से कविता निकली है या कविता से सुर निकले हैं यह पता नहीं चलता। मुझे लगता  है की यह कवि शैलेन्द्र और संगीतकार सलिल चौधरी की एक सबसे उत्कृष्ट जुगलबंदी रही होगी।


सुबह की ठंडी महक के साथ पेड़ की पत्तियों से ओस की बूंदों का टपटपा कर दरिया के पानी में गिरना और धरा पर एक सुन्दर से फूल का  मिलाना, नायिका का अपने हाथों से उस प्रकृति के गहने को उठाना, निहारनानायिका को प्रकृति के सौंदर्य का एक अटूट एहसास दिलाता है जिसकी तुलना जैसे वह अपने अस्तित्व से कर रही हो. अपने स्त्रीतत्व से कर रही हो।  जैसे प्रकृति रूपी स्त्री का कर्णफूल धरा पे गिर गया हो और उस खनक से से सारी कायनात उमड़ कर दूर किसी चरवाहे की बांसुरी की धुन में सिमट कर उस प्रकृति रुपी नायिका की मधुर और थिरकती आवाज़ बन गयी हो और वह गुनगुनाहट सारी सृष्टि को सुशोभित करने में जुट गई हो। यहाँ नायिका का अंतरंग संवाद अपनी ही प्रकृति के साथ चल पड़ता है (nature within nature without )


जहाँ प्यार के हिंडोले में उसके मन रूपी नयन खो गए हैं, जो आने वाले जीवन के सपनो की अनुभूति में जैसे इस पल को जो  एक सम्पूर्ण पल है उसे भूला से गएँ हैं। वही प्रकृति, नायिका से जैसे कह रही हो कि जीवन की प्रेम अनुभूति के पलों में खो जाने के लिए उस हार और जीत के एक पल के लिए जहाँ सर्वस्व प्रेम पर निछावर हो रहा है वहीँ जैसे जीवन के कुछ परम अनुभूति के पल उसके हाथों से छूट भी  रहें हैं। ऐसे पल जिनमें कोई बंदिश नहीं। एक हलकी सी दुवधा है पर लक्ष्य स्पष्ट है जो केवल प्रेम के असीम आलिंगन में है। प्रकृति के आँगन में गुज़ारे ये पल जैसे नायिका के गहने बन चुके हैं और इन गहनो से निखरते हुए रूप को लिए वह अपने प्रेमी से मिलन के इंतज़ार में है। 

Milaa Hai Kisi Kaa Jhumakaa Thande-Thande Hare-Hare Nim Tale
O Sachche Moti Vaalaa Jhumakaa Thade-Thade Hare-Hare Nim Tale
Suno Kyaa Kahataa Hai Jhumakaa Thade-Thade Hare-Hare Nim Tale
Milaa Hai Kisi Kaa
Pyar Kaa Hidolaa Yahaan Jhul Ga_E Nainaa
Sapane Jo Dekhe Mujhe Bhul Ga_E Nainaa -2
Haay Re Bechaaraa Jhumakaa
Thade-Thade Hare-Hare
Jivan Bhar Kaa Naataa Paradesiyaa Se Jodaa
Aap Gayi Piyaa Sag Mujhe Yahaan Chhodaa -2
Padaa Hai Akelaa Jhumakaa Thade-Thade Hare-Hare
Haay Re Yeh Prit Ki Hai Rit Jane Kaisi
Tan-Man Haar Jane Mein Hai Jit Jane Kaisi -2
Jane Ne Bechaaraa Jhumakaa
Thade-Thade Hare-Hare







Monday, September 14, 2015

उन्मुक्त

कलम ने उठकर
चुपके से कोरे कागज़ से कुछ कहा
और मैं स्याही बनकर बह चली
मधुर स्वछ्न्द गीत गुनगुनाती,
उड़ते पत्तों की नसों में लहलहाती।
उल्लसित जोशीले से
ये चल पड़े हवाओं पर
अपनी कहानियाँ लिखने।
सितारों की धूल
इन्हें सहलाती रही।
कलम मन ही मन
मुस्कुराती रही
गीत गाती रही।
-मीना 

Friday, July 18, 2014

तीर्थ

सौंधी हवा का झोंका

मेरे आँचल में 
फिसल कर आ गिरा।
     वक्त का एक मोहरा हो गया।
     और फिर
     फ़िज़ाओं की चादर पर बैठा
     हवाओं को चूमता
     आसमानों की सरहदों में कहीं

Thursday, May 15, 2014

अघटनीय -


Thursday, May 1, 2014

धुँआ



StarBuzzOnline.com

Sunday, April 20, 2014

अवशेष

वक्त खण्डित था, युगों में !
टूटती रस्सियों में बंध चुका था 
अँधेरे इन रस्सियों को निगल रहे थे
तब !
जीवन तरंग में अविरत मैं
तुम्हारे कदमों में झुकी हुई
तुम्हीं में प्रवाहित
तुम्हीं में मिट रही थी
तुम्हीं में बन रही थी|
तुम्हीं से अस्त और उदित मैं
तुम्हीं में जल रही थी
तुम्हीं में बुझ रही थी! 
कुछ खाँचे बच गए थे                                 
कई कहानियाँ तैर रही थीं जिनमें                       
उन्ही मे हमारी कहानी भी                             
अपना किनारा ढूँढती थी! 
एक अंत !                                           जिसका आरम्भ,                                     
दृष्टि और दृश्य से ओझल                             
भविष्य और भूत की धुन्ध में लिपटा                     मद्धम सा दिखाई देता था।  
अविरल !
शायद एक स्वप्न लोक ! 
और तब आँख खुल गई
हम अपनी तकदीरों में जग गए।
टुकड़े - टुकड़े                                                                 ज़मीं पर बिखर गए                                                            
-मीना                                                                                                                                              


Wednesday, April 2, 2014

माणिक

सपनों के सपाट कैनवास पर

रेखाएँ खींचता
असीम स्पर्श तुम्हारा
कभी झिंझोड़ता
कभी थपथपाता
कुछ खाँचे बनाता
आँकता हुआ चिन्हों को
रंगों से तरंगों को भिगोता रहा
एक रात का एक मख़मली एहसास।


कच्ची पक्की उम्मीदों में बँधा
सतरंगी सा उमड़ता आवेग
एक छलकता, प्रवाहित इंद्रधनुष
झलकता रहा गली-कूचों में
बिखरी सियाह परछाइयों
के बीच कहीं दबा दबा।


रात रोशन थी
श्वेत चाँदनी सो रही थी मुझमें
निष्कलंक!
अँधेरों की मुट्ठी में बंद
जैसे माणिक हो सर्प के
फन से उतरा हुआ।

Sunday, March 23, 2014

आनन्द मठ

मीना द्वारा निर्मित पेस्टल ऑन पेपर 
हाथों की वो छुअन और गरमाहटें
बन्द है मुट्ठी में अबतक                          
          ज्योतिर्मय हो चली हैं
            हथेली में रक्खी रेखाएँ।
         लाखों जुगनू हवाओं में भर गए हैं
           तक़दीरें उड़ चली हैं आसमानों में
            सर्दियों की कोसी धूप
             छिटक रही है दहलीज़ तक,

         और तुम – कहीं दूर –
           मेरी रूह में अंकित
            आकाश-रेखा पर चलते हुए –
             एक बिंदु में ओझल होते चले गए।

       डूब चुके हो
        जहाँ नियति –
          सागर की बूँदों में तैरती है।
      
     मेरी मुट्ठी में बंधी रेखाएँ
      ज्योतिर्मय हो चुकी हैं।
       तुम्हारी धूप
        मुझमें आ रुकी है।
-मीना चोपड़ा 


Sunday, March 16, 2014

अमावस को—

मीना चोपड़ा द्वारा निर्मित तैलचित्र 
अमावस को—
तारों से गिरती धूल में
चांदनी रात का बुरादा शामिल कर 
एक चमकीला अबीर 
बना डाला मैने
उजला किया इसको मलकर
रात का चौड़ा माथा।

Saturday, March 15, 2014

वो हल्का सा गुलाल-

''होली आई रे आई होली आई रे '' (चर्चा मंच-1554)

आँखों की जलती बुझती रौशानी के बीच कहीं 
पेस्टल चित्र - मीना द्वारा रचित  
वो हल्का सा गुलाल-
क्षितिज के मद्धम से अंधरों को अपने में समेटे 
चाँद की पेशानी पर 
टिमटिमाता है अबीर बन 
हर पूनम को
वो हल्का सा गुलाल- 

आस लगाये बैठी हूँ
उस होली की सुबह का 
जब ये चाँद पूनम से उतर कर 
अमावास के गुलाल में सितारे भरकर
मेरे मन के अंधेरों की पेशानी पर 
इन्द्रधनुश सा रौशन होगा। 

मेरा जीवन
अमावास से बने उजालों के 
एक अथाह सागर में भीगा होगा। 

-मीना चोपड़ा 

Thursday, March 13, 2014

उन्मुक्त

कलम ने उठकर

Drawing by Meena
चुपके से कोरे कागज़ से कुछ कहा
और मैं स्याही बनकर बह चली
           मधुर स्वछ्न्द गीत गुनगुनाती,
                     उड़ते पत्तों की नसों में लहलहाती।
उल्लसित जोशीले से
ये चल पड़े हवाओं पर
अपनी कहानियाँ लिखने।
           सितारों की धूल
                      इन्हें सहलाती रही।
कलम मन ही मन
             मुस्कुराती रही
                       गीत गाती रही।
-मीना चोपड़ा 

Wednesday, March 12, 2014

कविता

Pastel by Meena

वक्त की सियाही में

तुम्हारी रोशनी को भरकर
समय की नोक पर रक्खे
शब्दों का कागज़ पर
कदम-कदम चलना।

एक नए वज़ूद को
मेरी कोख में रखकर
माहिर है कितना
इस कलम का
मेरी उँगलियों से मिलकर
तुम्हारे साथ-साथ 
यूँ सुलग सुलग चलना |

-©मीना चोपड़ा 

Tuesday, March 11, 2014

और कुछ भी नहीं

Pastel on paper by Meena Chopra
ख़यालों में डूबे
वक्त की सियाही में
कलम को अपनी डुबोकर
आकाश को रोशन कर दिया था मैंने

Monday, March 10, 2014

पिघलता सूरज

Oil on Canvas by Meena
एक पिघलता सूरज देखा है मैंने
तुम्हारी आँखों के किनारे पर।कभी देखा है किनारों से पिघलता रंग
गिरकर दरिया में बहता हुआ
और कभी
दरिया को इन्हीं रंगों में बहते देखा है
देखा है जो कुछ भी
बस बहता ही देखा है।
-©मीना चोपड़ा

Sunday, March 2, 2014

शून्य की परछाईं

English: Red sunrise over Oostende, Belgium
 (Photo credit: Wikipedia)
सितारों में लीन हो चुके हैं स्याह सन्नाटे
ख़लाओं को हाथों में थामें
दिन फूट पड़ा है लम्हा - लम्हा
      रोशनी को अपनी
      ढलती चाँदनी की चादर पर बिखराता

Friday, February 28, 2014

औरत

ये वह शक्ति है जिसकी कोख में जीवन पनपता है 
मीना द्वारा 
निमित पेस्टल चित्र  
वो ताकत है 
जो सितारों भरी क़ायनात को जन्म देती है,
जीवन को जगमगाहट और नज्जारों  को इल्म देती है,
धरा पे उगते फूलों, पौधों और पेड़ों को सींच देती है
कहीं शबरी, कहीं मीरा, तो कहीं रानी झाँसी का रूप लेती है
ये औरत है जो रण में जाते वीरों को विजय तिलक देती है
ये औरतहै, निर्भय है,

निर्भयता को जन्म देती है।
-©मीना चोपड़ा