कई भागों में बँटे हुए
और टूटते हुए ईश्वर
से गिरी धूल और मिटटी में
सने मेरे ये शब्द मूक हो गए हैं
इन मंदिरों, मस्जिदों और ईसा-घरों के
आलीशान गुम्बदों से गिर-गिर के
मेरी आवाज़ चूर हो गई है
इस झूठी सच्चाई की दलदल में फसी
ये ज़मीन की कोख में खो हैं
रौंदी हुई सिमटी हुई
मेरी ये ज़मीन आज चुप है
मुझे पनाह देती है
मूक है
कुछ नहीं कहती
लेकिन कब तक?
-मीना
और टूटते हुए ईश्वर
से गिरी धूल और मिटटी में
सने मेरे ये शब्द मूक हो गए हैं
इन मंदिरों, मस्जिदों और ईसा-घरों के
आलीशान गुम्बदों से गिर-गिर के
मेरी आवाज़ चूर हो गई है
इस झूठी सच्चाई की दलदल में फसी
ये ज़मीन की कोख में खो हैं
रौंदी हुई सिमटी हुई
मेरी ये ज़मीन आज चुप है
मुझे पनाह देती है
मूक है
कुछ नहीं कहती
लेकिन कब तक?
-मीना
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