Saturday, August 10, 2019

पूरब की हूँ - श्यामल सी

"साँझ में शामिल रंगों को ओढ़े
नज़र में बटोर के मचलते मंज़र
ढलते हुए दिन के चेहरे में
मुट्ठी भर उजाला ढूँढ़्ती हूँ।
पूरब की हूँ - श्यामल सी
सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।
पहन के पैरों में पायल
बहकती हवाओं की
फ़िज़ाओं के सुरीले तरन्नुम में
गुनगुनाहटें ज़िन्दगी की ढूढ़्ती हूं

पूरब की हूँ - श्यामल सी
सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।

उठती निगाहों में
भर के कायनात का काजल
दूर कहीं छोर पर उफ़क के
टिमटिमाता वो सितारा ढूढ़्ती हूं

पूरब की हूँ - श्यामल सी
सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।

शोख फूलों को
घूंट मस्ती के पिलाकर
चहकती धूप को आंगन में बिछाकर
ओस की बूंद में अम्बर को ढूँढ़्ती हूँ

पूरब की हूँ - श्यामल सी
सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।"
-मीना

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