Wednesday, December 25, 2019

सर्द सन्नाटा

 
सुबह  के  वक़्त  
आँखें  बंद कर के देखती हूँ जब  
तो यह जिस्म के कोनो से
ससराता हुआ निकलता जाता  है
सूरज की किरणे गिरती  हैं
जब भी इस पर
तो खिल उठता है  यह
फूल बनकर
और मुस्कुरा देता है
आँखों में मेरी झांक कर
 
सर्द सन्नाटा
 
कभी यह जिस्म के कोनो में
ठहर भी जाता है  
कभी गीत बन कर
होठों पर रुक जाता है
और कभी
गले के सुरों को पकड़ 
गुनगुनाता है 
फिर शाम के 
रंगीन अंधेरों  में घुल कर
सर्द रातों में गूंजता है अक्सर  
सर्द सन्नाटा
 
मेरे करीब आजाता है बहुत
मेरा हबीब
सन्नाटा
 

No comments:

Post a Comment