गीत की व्याख्या :
शायद संगीत और गीत जहाँ एक हो जाते हैं वहां सबसे उच्च श्रेणी की कविता या कला का जन्म होता है। परख का गीत "मिला है किसी का झुमका" भोर के आँचल की महक से भीग कर हमारे मन की गहराइयों की झील में डूब जाता है। सुरों से कविता निकली है या कविता से सुर निकले हैं यह पता नहीं चलता। मुझे लगता है की यह कवि शैलेन्द्र और संगीतकार सलिल चौधरी की एक सबसे उत्कृष्ट जुगलबंदी रही होगी।
सुबह की ठंडी महक के साथ पेड़ की पत्तियों से ओस की बूंदों का टपटपा कर दरिया के पानी में गिरना और धरा पर एक सुन्दर से फूल का मिलाना, नायिका का अपने हाथों से उस प्रकृति के गहने को उठाना, निहारना, नायिका को प्रकृति के सौंदर्य का एक अटूट एहसास दिलाता है जिसकी तुलना जैसे वह अपने अस्तित्व से कर रही हो. अपने स्त्रीतत्व से कर रही हो। जैसे प्रकृति रूपी स्त्री का कर्णफूल धरा पे गिर गया हो और उस खनक से से सारी कायनात उमड़ कर दूर किसी चरवाहे की बांसुरी की धुन में सिमट कर उस प्रकृति रुपी नायिका की मधुर और थिरकती आवाज़ बन गयी हो और वह गुनगुनाहट सारी सृष्टि को सुशोभित करने में जुट गई हो। यहाँ नायिका का अंतरंग संवाद अपनी ही प्रकृति के साथ चल पड़ता है (nature within nature without )।
जहाँ प्यार के हिंडोले में उसके मन रूपी नयन खो गए हैं, जो आने वाले जीवन के सपनो की अनुभूति में जैसे इस पल को जो एक सम्पूर्ण पल है उसे भूला से गएँ हैं। वही प्रकृति, नायिका से जैसे कह रही हो कि जीवन की प्रेम अनुभूति के पलों में खो जाने के लिए उस हार और जीत के एक पल के लिए जहाँ सर्वस्व प्रेम पर निछावर हो रहा है वहीँ जैसे जीवन के कुछ परम अनुभूति के पल उसके हाथों से छूट भी रहें हैं। ऐसे पल जिनमें कोई बंदिश नहीं। एक हलकी सी दुवधा है पर लक्ष्य स्पष्ट है जो केवल प्रेम के असीम आलिंगन में है। प्रकृति के आँगन में गुज़ारे ये पल जैसे नायिका के गहने बन चुके हैं और इन गहनो से निखरते हुए रूप को लिए वह अपने प्रेमी से मिलन के इंतज़ार में है।
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