ओस की एक बूँद
प्रज्ज्वलित हैं वक़्त से गिरते पलों की कुछ सुर्ख परछाइयाँ जिनके आभास को अपनी मुट्ठी में बंद कर लेने कि एक अंतहीन तड़प, दृश्य को अदृश्य में परिणत करती हुई इस ठहरे बहाव की एक निरी सच्चाई, मेरे मूक होते हुए शब्दों में कुछ कहती हुई चुप हो जाती है | मैं अपने रेखाचित्रों की लकीरों में, रंग भरी तूलिका से अपने कैनवास के स्पर्श में, पंक्तियों में बिखरते शब्दों में और इस तरह कई बार अपनी लेखनी और कागज़ के बीच की छटपटाहट में, मानव चेतना के छलावे को अक्सर खोजती हूँ|
Sunday, November 27, 2016
Friday, December 25, 2015
REMEMBRING "SADHANA" :: Mila Hai Kisi Ka Jhumka (गीत व्याख्या) - Parakh
गीत की व्याख्या :
शायद संगीत और गीत जहाँ एक हो जाते हैं वहां सबसे उच्च श्रेणी की कविता या कला का जन्म होता है। परख का गीत "मिला है किसी का झुमका" भोर के आँचल की महक से भीग कर हमारे मन की गहराइयों की झील में डूब जाता है। सुरों से कविता निकली है या कविता से सुर निकले हैं यह पता नहीं चलता। मुझे लगता है की यह कवि शैलेन्द्र और संगीतकार सलिल चौधरी की एक सबसे उत्कृष्ट जुगलबंदी रही होगी।
सुबह की ठंडी महक के साथ पेड़ की पत्तियों से ओस की बूंदों का टपटपा कर दरिया के पानी में गिरना और धरा पर एक सुन्दर से फूल का मिलाना, नायिका का अपने हाथों से उस प्रकृति के गहने को उठाना, निहारना, नायिका को प्रकृति के सौंदर्य का एक अटूट एहसास दिलाता है जिसकी तुलना जैसे वह अपने अस्तित्व से कर रही हो. अपने स्त्रीतत्व से कर रही हो। जैसे प्रकृति रूपी स्त्री का कर्णफूल धरा पे गिर गया हो और उस खनक से से सारी कायनात उमड़ कर दूर किसी चरवाहे की बांसुरी की धुन में सिमट कर उस प्रकृति रुपी नायिका की मधुर और थिरकती आवाज़ बन गयी हो और वह गुनगुनाहट सारी सृष्टि को सुशोभित करने में जुट गई हो। यहाँ नायिका का अंतरंग संवाद अपनी ही प्रकृति के साथ चल पड़ता है (nature within nature without )।
जहाँ प्यार के हिंडोले में उसके मन रूपी नयन खो गए हैं, जो आने वाले जीवन के सपनो की अनुभूति में जैसे इस पल को जो एक सम्पूर्ण पल है उसे भूला से गएँ हैं। वही प्रकृति, नायिका से जैसे कह रही हो कि जीवन की प्रेम अनुभूति के पलों में खो जाने के लिए उस हार और जीत के एक पल के लिए जहाँ सर्वस्व प्रेम पर निछावर हो रहा है वहीँ जैसे जीवन के कुछ परम अनुभूति के पल उसके हाथों से छूट भी रहें हैं। ऐसे पल जिनमें कोई बंदिश नहीं। एक हलकी सी दुवधा है पर लक्ष्य स्पष्ट है जो केवल प्रेम के असीम आलिंगन में है। प्रकृति के आँगन में गुज़ारे ये पल जैसे नायिका के गहने बन चुके हैं और इन गहनो से निखरते हुए रूप को लिए वह अपने प्रेमी से मिलन के इंतज़ार में है।
Milaa Hai Kisi Kaa Jhumakaa Thande-Thande Hare-Hare Nim Tale
O Sachche Moti Vaalaa Jhumakaa Thade-Thade Hare-Hare Nim Tale
Suno Kyaa Kahataa Hai Jhumakaa Thade-Thade Hare-Hare Nim Tale
Milaa Hai Kisi Kaa
Pyar Kaa Hidolaa Yahaan Jhul Ga_E Nainaa
Sapane Jo Dekhe Mujhe Bhul Ga_E Nainaa -2
Haay Re Bechaaraa Jhumakaa
Thade-Thade Hare-Hare
Jivan Bhar Kaa Naataa Paradesiyaa Se Jodaa
Aap Gayi Piyaa Sag Mujhe Yahaan Chhodaa -2
Padaa Hai Akelaa Jhumakaa
Thade-Thade Hare-Hare
Haay Re Yeh Prit Ki Hai Rit Jane Kaisi
Tan-Man Haar Jane Mein Hai Jit Jane Kaisi -2
Jane Ne Bechaaraa Jhumakaa
Thade-Thade Hare-Hare
Monday, September 14, 2015
उन्मुक्त
कलम ने उठकर
चुपके से कोरे कागज़ से कुछ कहा
और मैं स्याही बनकर बह चली
मधुर स्वछ्न्द गीत गुनगुनाती,
उड़ते पत्तों की नसों में लहलहाती।
उल्लसित जोशीले से
ये चल पड़े हवाओं पर
अपनी कहानियाँ लिखने।
ये चल पड़े हवाओं पर
अपनी कहानियाँ लिखने।
सितारों की धूल
इन्हें सहलाती रही।
कलम मन ही मन
मुस्कुराती रही
गीत गाती रही।
इन्हें सहलाती रही।
कलम मन ही मन
मुस्कुराती रही
गीत गाती रही।
-मीना
Friday, August 28, 2015
Friday, July 18, 2014
तीर्थ
सौंधी हवा का झोंका
मेरे आँचल में
फिसल कर आ गिरा।
वक्त का एक मोहरा हो गया।
और फिर
फ़िज़ाओं की चादर पर बैठा
हवाओं को चूमता
आसमानों की सरहदों में कहीं
वक्त का एक मोहरा हो गया।
और फिर
फ़िज़ाओं की चादर पर बैठा
हवाओं को चूमता
आसमानों की सरहदों में कहीं
Thursday, May 15, 2014
Thursday, May 1, 2014
Sunday, April 20, 2014
अवशेष
वक्त खण्डित था, युगों में !
टूटती रस्सियों में बंध चुका था
अँधेरे इन रस्सियों को निगल रहे थे।टूटती रस्सियों में बंध चुका था
तब !
जीवन तरंग में अविरत मैं
तुम्हारे कदमों में झुकी हुई
तुम्हीं में प्रवाहित
तुम्हीं में मिट रही थी
तुम्हीं में बन रही थी|
तुम्हारे कदमों में झुकी हुई
तुम्हीं में प्रवाहित
तुम्हीं में मिट रही थी
तुम्हीं में बन रही थी|
तुम्हीं से अस्त और उदित मैं
तुम्हीं में जल रही थी
तुम्हीं में बुझ रही थी!
तुम्हीं में जल रही थी
तुम्हीं में बुझ रही थी!
कुछ खाँचे बच गए थे
कई कहानियाँ तैर रही थीं जिनमें
उन्ही मे हमारी कहानी भी
अपना किनारा ढूँढती थी!
कई कहानियाँ तैर रही थीं जिनमें
उन्ही मे हमारी कहानी भी
अपना किनारा ढूँढती थी!
एक अंत ! जिसका आरम्भ,
दृष्टि और दृश्य से ओझल
भविष्य और भूत की धुन्ध में लिपटा मद्धम सा दिखाई देता था।
दृष्टि और दृश्य से ओझल
भविष्य और भूत की धुन्ध में लिपटा मद्धम सा दिखाई देता था।
अविरल !
शायद एक स्वप्न लोक !
शायद एक स्वप्न लोक !
और तब आँख खुल गई
हम अपनी तकदीरों में जग गए।
हम अपनी तकदीरों में जग गए।
टुकड़े - टुकड़े ज़मीं पर बिखर गए।
-मीना
Wednesday, April 2, 2014
माणिक
सपनों के सपाट कैनवास पर
रेखाएँ खींचता
असीम स्पर्श तुम्हारा
कभी झिंझोड़ता
कभी थपथपाता
कुछ खाँचे बनाता
आँकता हुआ चिन्हों को
रंगों से तरंगों को भिगोता रहा
एक रात का एक मख़मली एहसास।
कच्ची पक्की उम्मीदों में बँधा
सतरंगी सा उमड़ता आवेग
एक छलकता, प्रवाहित इंद्रधनुष
झलकता रहा गली-कूचों में
बिखरी सियाह परछाइयों
के बीच कहीं दबा दबा।
रात रोशन थी
श्वेत चाँदनी सो रही थी मुझमें
निष्कलंक!
अँधेरों की मुट्ठी में बंद
जैसे माणिक हो सर्प के
फन से उतरा हुआ।
Sunday, March 23, 2014
आनन्द मठ
मीना द्वारा निर्मित पेस्टल ऑन पेपर |
हाथों की वो छुअन और गरमाहटें
बन्द है मुट्ठी में अबतक
बन्द है मुट्ठी में अबतक
ज्योतिर्मय हो चली हैं
हथेली में रक्खी रेखाएँ।
हथेली में रक्खी रेखाएँ।
लाखों जुगनू हवाओं में भर गए हैं
तक़दीरें उड़ चली हैं आसमानों में
सर्दियों की कोसी धूप
छिटक रही है दहलीज़ तक,
और तुम – कहीं दूर –
मेरी रूह में अंकित
आकाश-रेखा पर चलते हुए –
एक बिंदु में ओझल होते चले गए।
डूब चुके हो
जहाँ नियति –
सागर की बूँदों में तैरती है।
तक़दीरें उड़ चली हैं आसमानों में
सर्दियों की कोसी धूप
छिटक रही है दहलीज़ तक,
और तुम – कहीं दूर –
मेरी रूह में अंकित
आकाश-रेखा पर चलते हुए –
एक बिंदु में ओझल होते चले गए।
डूब चुके हो
जहाँ नियति –
सागर की बूँदों में तैरती है।
मेरी मुट्ठी में बंधी रेखाएँ
ज्योतिर्मय हो चुकी हैं।
तुम्हारी धूप
मुझमें आ रुकी है।
ज्योतिर्मय हो चुकी हैं।
तुम्हारी धूप
मुझमें आ रुकी है।
-मीना चोपड़ा
Sunday, March 16, 2014
Saturday, March 15, 2014
वो हल्का सा गुलाल-
''होली आई रे आई होली आई रे '' (चर्चा मंच-1554)
आँखों की जलती बुझती रौशानी के बीच कहीं
आँखों की जलती बुझती रौशानी के बीच कहीं
पेस्टल चित्र - मीना द्वारा रचित |
वो हल्का सा गुलाल-
क्षितिज के मद्धम से अंधरों को अपने में समेटे
चाँद की पेशानी पर
टिमटिमाता है अबीर बन
हर पूनम को
वो हल्का सा गुलाल-
आस लगाये बैठी हूँ
उस होली की सुबह का
जब ये चाँद पूनम से उतर कर
अमावास के गुलाल में सितारे भरकर
मेरे मन के अंधेरों की पेशानी पर
इन्द्रधनुश सा रौशन होगा।
मेरा जीवन
अमावास से बने उजालों के
एक अथाह सागर में भीगा होगा।
Thursday, March 13, 2014
Wednesday, March 12, 2014
Tuesday, March 11, 2014
Monday, March 10, 2014
Sunday, March 2, 2014
शून्य की परछाईं
(Photo credit: Wikipedia) |
सितारों में लीन हो चुके हैं स्याह सन्नाटे
ख़लाओं को हाथों में थामें
रोशनी को अपनी
ढलती चाँदनी की चादर पर बिखराता
Friday, February 28, 2014
औरत
ये वह शक्ति है जिसकी कोख में जीवन पनपता है
वो ताकत है
जो सितारों भरी क़ायनात को जन्म देती है,
जीवन को जगमगाहट और नज्जारों को इल्म देती है,
धरा पे उगते फूलों, पौधों और पेड़ों को सींच देती है
कहीं शबरी, कहीं मीरा, तो कहीं रानी झाँसी का रूप लेती है
ये औरत है जो रण में जाते वीरों को विजय तिलक देती है
ये औरतहै, निर्भय है,
निर्भयता को जन्म देती है।
-©मीना चोपड़ा
मीना द्वारा निमित पेस्टल चित्र |
जो सितारों भरी क़ायनात को जन्म देती है,
जीवन को जगमगाहट और नज्जारों को इल्म देती है,
धरा पे उगते फूलों, पौधों और पेड़ों को सींच देती है
कहीं शबरी, कहीं मीरा, तो कहीं रानी झाँसी का रूप लेती है
ये औरत है जो रण में जाते वीरों को विजय तिलक देती है
ये औरतहै, निर्भय है,
निर्भयता को जन्म देती है।
-©मीना चोपड़ा
Thursday, February 27, 2014
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