कहीं छुपछूपाते हुए,
जहां क्षितिज के सीने में उलझी मृगत्रिष्णा
ढलती शाम के क़दमों में दम तोड़ देती है।
और कभी
हवा के झोंकों में लिपटे
पत्तों की सरसराहट में
इसकी मध्धम सी आवाज़ भी सुनी थी मैंने
यह उसी भीनी हवा के झोंके सा
छू कर निकल गया था मुझे हलके से
कभी
फूल - फूल में
इसकी खुशबू भी चुनी थी मैंने!
कभी
इसने मुझे अपनी बाँहों में कैद करके
जकड के रख लिया था
अपने सीने की असीम तड़प के चुंगल में
बहती खलाओं का
वो आवारा टुकड़ा -
पल-पल मेरे साथ
चलता भी रहा
जलता भी रहा-
जिसे संजो के रख लिया
एक दिन मैंने
दिल की हर एक धड़कन में
और महसूस किया
उसकी खुशबू को
बहते पलों के अविरत झुरमुट में।
देखा है आज उसे पहली बार
मन के स्पष्ट दर्पण में
सुना है आज उसे ज़मीन की
उभरती साँसों के निरन्तर स्पंदन में
छुपा लिया है इसे
हर पल के बहते हुए
हर एक रंग में।
बहती खलाओं का
वो आवारा टुकड़ा -
घुल चूका है मिश्री सा
मेरे जीवन के अविरल मिश्रण मे।
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