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मिट्टी को मेरी ओढ़े
अपनी सिलवटों के बीच
खुद ही सिमटता चला गया
और कुछ झलकती
परछाइयों की सरसराहट,
सरकती हुई
इन सिलवटों में
गुम होती चली गयी|
सुबह के कुछ आंसू
आँखों के किनारों से छलक पड़े|
देखो तो सही
पूरब की पेशानी से उगती
मखमली रोशनी के उस टुकड़े ने
हरियाली के हसीन चेहरे पर
यह कैसी शबनम बिखेर दी है?
शाम के वक़्त
जो शाम के प्याले में भरकर
अँधेरी रात के नशीले होंठों का
जादूई जाम बना करती है|
-मीना चोपड़ा
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