Pastel on paper by Meena |
कोरी मिट्टी!
धरा से उभरी,
तुम्हारे हाथों में
तुम्हारे हाथों तक
जीवन धारा से
सिंचित हुई यह मिट्टी।
अधरों और अँधेरों की
उँगलियों में गुँथती
एक दिये में ढलती मिट्टी,
जिसमें एक टिमटिमाती रौशनी को रक्खा मैंने
और आँखों से लगाकर
अर्श की ऊँचाइयों को पूजा
एक अदृश्य और उद्दीप्त अर्चना में।
कच्ची मिट्टी का दिया है
और कँपकँपाती हथेलियाँ
मेरा भय!
मेरी आराधना और तुम्हारी उदासीनता
के बीच की स्पर्धा में
दीपक का गिरना
चिटखना और टूट जाना,
रौशनी का थक के बुझना
बुझ के लौट जाना
और कँपकँपाती हथेलियाँ
मेरा भय!
मेरी आराधना और तुम्हारी उदासीनता
के बीच की स्पर्धा में
दीपक का गिरना
चिटखना और टूट जाना,
रौशनी का थक के बुझना
बुझ के लौट जाना
मेरी इबादत का अन्त
क्या यूँ ही टूटना, बिखरना
और मिट जाना है?
क्या यूँ ही टूटना, बिखरना
और मिट जाना है?
तो फिर
प्रज्ज्वलित कौन?
प्रज्ज्वलित कौन?
No comments:
Post a Comment