प्रज्ज्वलित
प्रज्ज्वलित हैं वक़्त से गिरते पलों की कुछ सुर्ख परछाइयाँ जिनके आभास को अपनी मुट्ठी में बंद कर लेने कि एक अंतहीन तड़प, दृश्य को अदृश्य में परिणत करती हुई इस ठहरे बहाव की एक निरी सच्चाई, मेरे मूक होते हुए शब्दों में कुछ कहती हुई चुप हो जाती है | मैं अपने रेखाचित्रों की लकीरों में, रंग भरी तूलिका से अपने कैनवास के स्पर्श में, पंक्तियों में बिखरते शब्दों में और इस तरह कई बार अपनी लेखनी और कागज़ के बीच की छटपटाहट में, मानव चेतना के छलावे को अक्सर खोजती हूँ|
Saturday, January 23, 2021
Wednesday, December 25, 2019
सर्द सन्नाटा
सुबह के वक़्त
आँखें बंद कर के देखती हूँ जब
तो यह जिस्म के कोनो से
ससराता हुआ निकलता जाता है
सूरज की किरणे गिरती हैं
जब भी इस पर
तो खिल उठता है यह
फूल बनकर
और मुस्कुरा देता है
आँखों में मेरी झांक कर
सर्द सन्नाटा
कभी यह जिस्म के कोनो में
ठहर भी जाता है
कभी गीत बन कर
होठों पर रुक जाता है
और कभी
गले के सुरों को पकड़
गुनगुनाता है
फिर शाम के
रंगीन अंधेरों में घुल कर
सर्द रातों में गूंजता है अक्सर
सर्द सन्नाटा
मेरे करीब आजाता है बहुत
मेरा हबीब
सन्नाटा
Saturday, August 10, 2019
पूरब की हूँ - श्यामल सी
"साँझ में शामिल रंगों को ओढ़े
नज़र में बटोर के मचलते मंज़र
ढलते हुए दिन के चेहरे में
मुट्ठी भर उजाला ढूँढ़्ती हूँ।
ढलते हुए दिन के चेहरे में
मुट्ठी भर उजाला ढूँढ़्ती हूँ।
पूरब की हूँ - श्यामल सी
सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।
सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।
पहन के पैरों में पायल
बहकती हवाओं की
फ़िज़ाओं के सुरीले तरन्नुम में
गुनगुनाहटें ज़िन्दगी की ढूढ़्ती हूं
बहकती हवाओं की
फ़िज़ाओं के सुरीले तरन्नुम में
गुनगुनाहटें ज़िन्दगी की ढूढ़्ती हूं
पूरब की हूँ - श्यामल सी
सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।
उठती निगाहों में
भर के कायनात का काजल
दूर कहीं छोर पर उफ़क के
टिमटिमाता वो सितारा ढूढ़्ती हूं
पूरब की हूँ - श्यामल सी
सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।
शोख फूलों को
घूंट मस्ती के पिलाकर
चहकती धूप को आंगन में बिछाकर
ओस की बूंद में अम्बर को ढूँढ़्ती हूँ
पूरब की हूँ - श्यामल सी
सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।"
-मीना
Friday, January 4, 2019
धर्म संकट
कई भागों में बँटे हुए
और टूटते हुए ईश्वर
से गिरी धूल और मिटटी में
सने मेरे ये शब्द मूक हो गए हैं
इन मंदिरों, मस्जिदों और ईसा-घरों के
आलीशान गुम्बदों से गिर-गिर के
मेरी आवाज़ चूर हो गई है
इस झूठी सच्चाई की दलदल में फसी
ये ज़मीन की कोख में खो हैं
रौंदी हुई सिमटी हुई
मेरी ये ज़मीन आज चुप है
मुझे पनाह देती है
मूक है
कुछ नहीं कहती
लेकिन कब तक?
-मीना
और टूटते हुए ईश्वर
से गिरी धूल और मिटटी में
सने मेरे ये शब्द मूक हो गए हैं
इन मंदिरों, मस्जिदों और ईसा-घरों के
आलीशान गुम्बदों से गिर-गिर के
मेरी आवाज़ चूर हो गई है
इस झूठी सच्चाई की दलदल में फसी
ये ज़मीन की कोख में खो हैं
रौंदी हुई सिमटी हुई
मेरी ये ज़मीन आज चुप है
मुझे पनाह देती है
मूक है
कुछ नहीं कहती
लेकिन कब तक?
-मीना
Friday, April 6, 2018
कौन थी वह
कौन थी वह
जो एक बिन्दु-सी
सो रही थी पल-पल --
मीठी-सी नींद को
आँखों में भरकर
कोख की आँच में
माँ की सर रखकर।
चाहती थी वह
इस नये संसार में
खुलकर भ्रमण करना
एक नये वजूद को
पहन कर तन पर
ज़िन्दगी की चोखट पर
पहला कदम रखना
और फिर
इन जुड़ते और टूटते पलों
से बनी रिश्तों की सीढ़ी पर
लम्हा-लम्हा चढ़ना।
क्या था यही
जन्म को अपने
सार्थक करना?
कौन थी वह
जो एक बिन्दु-सी
सो रही थी पल-पल ......
जो एक बिन्दु-सी
सो रही थी पल-पल --
मीठी-सी नींद को
आँखों में भरकर
कोख की आँच में
माँ की सर रखकर।
चाहती थी वह
इस नये संसार में
खुलकर भ्रमण करना
एक नये वजूद को
पहन कर तन पर
ज़िन्दगी की चोखट पर
पहला कदम रखना
और फिर
इन जुड़ते और टूटते पलों
से बनी रिश्तों की सीढ़ी पर
लम्हा-लम्हा चढ़ना।
क्या था यही
जन्म को अपने
सार्थक करना?
कौन थी वह
जो एक बिन्दु-सी
सो रही थी पल-पल ......
Sunday, November 27, 2016
Friday, December 25, 2015
REMEMBRING "SADHANA" :: Mila Hai Kisi Ka Jhumka(गीत की व्याख्या) - Parakh
गीत की व्याख्या :
शायद संगीत और गीत जहाँ एक हो जाते हैं वहां सबसे उच्च श्रेणी की कविता या कला का जन्म होता है। परख का गीत "मिला है किसी का झुमका" भोर के आँचल की महक से भीग कर हमारे मन की गहराइयों की झील में डूब जाता है। सुरों से कविता निकली है या कविता से सुर निकले हैं यह पता नहीं चलता। मुझे लगता है की यह कवि शैलेन्द्र और संगीतकार सलिल चौधरी की एक सबसे उत्कृष्ट जुगलबंदी रही होगी।
सुबह की ठंडी महक के साथ पेड़ की पत्तियों से ओस की बूंदों का टपटपा कर दरिया के पानी में गिरना और धरा पर एक सुन्दर से फूल का मिलाना, नायिका का अपने हाथों से उस प्रकृति के गहने को उठाना, निहारना, नायिका को प्रकृति के सौंदर्य का एक अटूट एहसास दिलाता है जिसकी तुलना जैसे वह अपने अस्तित्व से कर रही हो. अपने स्त्रीतत्व से कर रही हो। जैसे प्रकृति रूपी स्त्री का कर्णफूल धरा पे गिर गया हो और उस खनक से से सारी कायनात उमड़ कर दूर किसी चरवाहे की बांसुरी की धुन में सिमट कर उस प्रकृति रुपी नायिका की मधुर और थिरकती आवाज़ बन गयी हो और वह गुनगुनाहट सारी सृष्टि को सुशोभित करने में जुट गई हो। यहाँ नायिका का अंतरंग संवाद अपनी ही प्रकृति के साथ चल पड़ता है (nature within nature without )।
जहाँ प्यार के हिंडोले में उसके मन रूपी नयन खो गए हैं, जो आने वाले जीवन के सपनो की अनुभूति में जैसे इस पल को जो एक सम्पूर्ण पल है उसे भूला से गएँ हैं। वही प्रकृति, नायिका से जैसे कह रही हो कि जीवन की प्रेम अनुभूति के पलों में खो जाने के लिए उस हार और जीत के एक पल के लिए जहाँ सर्वस्व प्रेम पर निछावर हो रहा है वहीँ जैसे जीवन के कुछ परम अनुभूति के पल उसके हाथों से छूट भी रहें हैं। ऐसे पल जिनमें कोई बंदिश नहीं। एक हलकी सी दुवधा है पर लक्ष्य स्पष्ट है जो केवल प्रेम के असीम आलिंगन में है। प्रकृति के आँगन में गुज़ारे ये पल जैसे नायिका के गहने बन चुके हैं और इन गहनो से निखरते हुए रूप को लिए वह अपने प्रेमी से मिलन के इंतज़ार में है।
Milaa Hai Kisi Kaa Jhumakaa Thande-Thande Hare-Hare Nim Tale
O Sachche Moti Vaalaa Jhumakaa Thade-Thade Hare-Hare Nim Tale
Suno Kyaa Kahataa Hai Jhumakaa Thade-Thade Hare-Hare Nim Tale
Milaa Hai Kisi Kaa
Pyar Kaa Hidolaa Yahaan Jhul Ga_E Nainaa
Sapane Jo Dekhe Mujhe Bhul Ga_E Nainaa -2
Haay Re Bechaaraa Jhumakaa
Thade-Thade Hare-Hare
Jivan Bhar Kaa Naataa Paradesiyaa Se Jodaa
Aap Gayi Piyaa Sag Mujhe Yahaan Chhodaa -2
Padaa Hai Akelaa Jhumakaa
Thade-Thade Hare-Hare
Haay Re Yeh Prit Ki Hai Rit Jane Kaisi
Tan-Man Haar Jane Mein Hai Jit Jane Kaisi -2
Jane Ne Bechaaraa Jhumakaa
Thade-Thade Hare-Hare
Monday, September 14, 2015
उन्मुक्त
कलम ने उठकर
चुपके से कोरे कागज़ से कुछ कहा
और मैं स्याही बनकर बह चली
मधुर स्वछ्न्द गीत गुनगुनाती,
उड़ते पत्तों की नसों में लहलहाती।
उल्लसित जोशीले से
ये चल पड़े हवाओं पर
अपनी कहानियाँ लिखने।
ये चल पड़े हवाओं पर
अपनी कहानियाँ लिखने।
सितारों की धूल
इन्हें सहलाती रही।
कलम मन ही मन
मुस्कुराती रही
गीत गाती रही।
इन्हें सहलाती रही।
कलम मन ही मन
मुस्कुराती रही
गीत गाती रही।
-मीना
Friday, August 28, 2015
Friday, July 18, 2014
तीर्थ
सौंधी हवा का झोंका
मेरे आँचल में
फिसल कर आ गिरा।
वक्त का एक मोहरा हो गया।
और फिर
फ़िज़ाओं की चादर पर बैठा
हवाओं को चूमता
आसमानों की सरहदों में कहीं
वक्त का एक मोहरा हो गया।
और फिर
फ़िज़ाओं की चादर पर बैठा
हवाओं को चूमता
आसमानों की सरहदों में कहीं
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