सपनों के सपाट कैनवास पर
रेखाएँ खींचता
असीम स्पर्श तुम्हारा
कभी झिंझोड़ता
कभी थपथपाता
कुछ खाँचे बनाता
आँकता हुआ चिन्हों को
रंगों से तरंगों को भिगोता रहा
एक रात का एक मख़मली एहसास।
कच्ची पक्की उम्मीदों में बँधा
सतरंगी सा उमड़ता आवेग
एक छलकता, प्रवाहित इंद्रधनुष
झलकता रहा गली-कूचों में
बिखरी सियाह परछाइयों
के बीच कहीं दबा दबा।
रात रोशन थी
श्वेत चाँदनी सो रही थी मुझमें
निष्कलंक!
अँधेरों की मुट्ठी में बंद
जैसे माणिक हो सर्प के
फन से उतरा हुआ।